अपराध
IQBAL
NEW DELHI :-भारतीय दंड संहिता धारा 40 अपराध को परिभाषित करती है धारा 40 के अनुसार अपराध शब्द से तात्पर्य ऐसे कार्य या लोप से है जिसके लिए दंड संहिता में दंड का प्रावधान है इस धारा में यह भी उपबन्धित है कि अपराध के अंतर्गत किसी अपराध का प्रयास करना भी शामिल है अर्थात अपराध के प्रयास को भी दंडनीय माना गया
सामान्य शब्दों में कहा जाए तो ऐसा कोई भी कार्य जो विधि के विरूद्ध किया जाता है अपराध है या विधि का उलंघन ही अपराध की श्रेणी में आता है राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राज्य के द्वारा जो नियम लोगों को साशिस्त करने के लिए बनाए जाते हैं विधि है तब ऐसे नियमों का उल्लघंन अपराध की श्रेणी में आता है
अपराध शब्द को विभिन्न विधिशास्त्रीयों द्वारा परिभाषित किया गया है
ब्लैक स्टोन
वह कृत्य जो सार्वजनिक विधि के विरुद्ध हो उसे करना या जिसे यह विधि करने के लिए बाध्य करें उसे करने में चूक करना, अपराध कहलाता है
सर स्टीफ़न
अपराध वह कृत्य है जो विधि द्वारा वर्जित है तथा समाज के नैतिक मनोभाव का विद्रोही है ” इस प्रकार अपराध एक ऐसा कार्य है जो समाज और व्यक्तियों के विरुद्ध किया जाता है रात की स्थिति में दोषी मन का होना अनिवार्य है बिना दोषी मन के किया हुआ अपराध, अपराध की श्रेणी में नहीं आता ऐसे अपराध को करने में उत्प्रेरण, धमकी या वचन का सहारा लिया जाता है जिसकी वजह से ऐसा अपराध घटित होता है
एक अपराध तब अपराध की श्रेणी में आता है जब अपराध के निम्न चार तत्व आपस में मिलकर संगठित होकर एक अपराध को कारित या अपराध की श्रेणी में रखते हैं
- मानव
- दुराशय
- दोषपूर्ण कार्य
- क्षति (मानव या समाज )
उक्त चारों तत्वों को मिलकर अपराध की पूर्ण परिभाषा को परिभाषित करते हैं विचारों तत्वों को एक साथ संगठित करके निम्न प्रकार परिभाषित कर सकते हैं
मानव द्वारा किसी कार्य या लोप द्वारा साशयित विधि का उल्लंघन जिससे किसी व्यक्ति यह समाज को हानि या क्षति हुई हो तथा जिसके लिए विधि में किसी दंड का प्रावधान है अपराध कहा जाता है
अपराध के आवश्यक तत्व निम्न हैं
मानव या व्यक्ति
अपराध का यह प्रथम तत्व है यह बताता है कि कृत्य किसी मनुष्य द्वारा नहीं किया जाना चाहिए धारा 2 में व्यक्ति की परिभाषा में नैसर्गिक व्यक्ति को बताया गया है अत: किसी भी कार्य की शुरुआत मानव द्वारा की जाती है
दुराशय
अपराध का द्वितीय तत्व दुराशय है दुराशय का अर्थ है दोषपूर्ण या अपराधिक आशय से है सामान्य शब्दों में “कोई कार्य अपराध नहीं होता जब तक की वह दुराशय या आपराधिक आशय से ना किया गया हो,
इसके मुख्य सूत्र निम्न हैं
” ACTUS NON FACIT REUM NISI MENS SIT REA” इस सूत्र का अर्थ होता है कि कोई कार्य स्वयं अपने आप में अपराध नहीं होता जब तक की वह अपराधिक आशय से ना किया गया हो
“NON EST REVS NISI MENS SIT REA “
यदि कोई आपराधिक मस्तिष्क नहीं है तो वे अपराध नहीं है
मेयर हंस जॉर्ज बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र 1965 SC 722, 731 के वाद में दुराशय के बारे में यह अभिमत वयक्त किया गया कि केवल कार्य को किसी को अपराधी नहीं बनाता यदि उसका मन भी अपराधी ना हो,
अत: दुराशय का अर्थ है की इसी ऐसे कार्य को करने का ऐसा आशय जिसे यदि कर दिया जाए तो अपराध होगा क्योंकि केवल दुराशय अपराध नहीं हो जाता जब तक कि कोई कार्य ना किया गया हो
कार्य या लोप
यह अपराध का तीसरा तत्व है किसी व्यक्ति द्वारा मन में द्वेष की भावना रखते हुए जो कार्य किया जाता है उसे दोषपूर्ण कार्य कहा जाता है कार्य में ना केवल एकल कार्य सम्मिलित है बल्कि एक ही संव्यवहार निर्मित करने वाली विभिन्न कार्यों की श्रंखला का समावेश है इस प्रकार अवैध लोप में लोपों की श्रृंखला भी सम्मिलित है
ऐसा कार्य इस कारण अपराध है कि अपराधिक अपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया कार्य है जैसे धारा 34, 149, 396, 460, 109, 114 धारा में किए गए अपराध
क्षति (मानव या समाज )
क्षति अपराध का अंतिम और आवश्यक तत्व है अपराध हुआ है तो इसे किसी को हानि या क्षति भी हुई होगी जो निम्न रूपों में हो सकती है
संपत्तिक रूप से
ख्याति रूप से
शारीरिक रूप से
मानसिक रूप से
किसी व्यक्ति को जब हानि हुई होती है तब उस व्यक्ति के द्वारा वाद लाया जाता है यह क्षति किसी व्यक्ति या समाज दोनों को हो सकती है किसी व्यक्ति के द्वारा यह चारों तत्वों से मिलाकर किसी अपराध को किया जाता है तब ऐसे कार्य जो विधि के विरुद्ध हो उन्हें करने के लिए राज्य सरकार प्रतिबंधित करती है और यदि किसी के द्वारा ऐसा किया जाता है तब विधि में दंड का प्रावधान दिया गया है अत:ऐसा करने पर दंडित किया जा सकता है