शरीर की आत्मरक्षा के अधिकार
New Delhi :- न्यायिक सेवा मुख्य परीक्षा टेस्ट सीरीज टेस्ट 3 एडवोकेट हिमानी शर्मा ,जुडीशल अस्पिरेट्स के द्वारा लिखा हुआ का उत्तर पढ़ें और कमेंट करें
प्रश्न .1. शरीर की आत्मरक्षा के अधिकार को समझाइए और उन परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए जिनमें यह अधिकार आक्रमक की मृत्यु कार्य करने तक विस्तृत होता है ? ( 500 शब्द)
उत्तर. शरीर की आत्मरक्षा का अधिकार – प्रत्येक व्यक्ति किसी भी बाहरी आक्रमण से अपने शरीर, संपत्ति या दूसरे के शरीर ,संपत्ति की रक्षा करने के लिए स्वतंत्र है । आवश्यकता पड़ने पर आक्रमण को दबाने के लिए अपनी शारीरिक शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 96 के अनुसार- कोई भी कार्य जो व्यक्तिगत सुरक्षा के अधिकार में प्रयोग किया जाता है अपराध नहीं है।
भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 97 के अनुसार- शरीर तथा संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार- धारा 99 के निरबंधनों के अधीन रहते हुए, भारत में प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है कि वह
1. शरीर- चाहे अपना हो या दूसरे का
2. संपत्ति -चाहे अपनी हो या दूसरे की ( चल या अचल)
या (चोरी ,लूट , रिषटि(शरारत), आपराधिक अतिचार जैसे अपराध)
की रक्षा के लिए प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं।
धारा 99- प्रतिबंध ,परिसीमा- कार्य जिनके विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है-
1. यदि कोई कार्य किसी लोक सेवक द्वारा या 2. उसके निदेश से सद्भाव पूर्वक, अपने पद पर कार्य करते हुए किया जाता है,
जिससे मृत्यु या उपहति की आशंका युक्तियुक्त रूप से कारित नहीं होती ,तो उस कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है चाहे वह कार्य विधि अनुसार सर्वथा न्यायानुमत न भी हो ।
3. जहां सुरक्षा के लिए लोक प्राधिकारीयों की सहायता के लिए पर्याप्त समय है,
4. आत्मरक्षा के लिए उतनी ही चोट पहुंचाई जा सकती हैं जितनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त हो।
धारा 99 खंड –
1. लोक सेवक द्वारा कार्य
2. लोक सेवक के निदेश द्वारा कार्य| 3. पर्याप्त समय होना
4. अतिरिक्त अपहानि
स्पष्टीकरण 1. कोई व्यक्ति लोक सेवक द्वारा किए गए कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं होता-
शर्त – यदि- (1). वह नहीं जानता कि कार्य करने वाला व्यक्ति लोकसेवक है
(2)उसके पास इस बात का कारण नहींहै
स्पष्टीकरण 2. कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक के िनदेश से किए गए कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नही होता,
शर्त – यदि – (1)वह जानता नहीं
(2) ना ही उसके पास विश्वास का कारण है कि वह व्यक्ति लोक सेवक के निर्देश में कार्य कर रहा है,
(3) कार्य करने वाला न बताया कि वह निर्देश में कार्य कर रहा है ,
(4) वह ऐसे लिखित प्राधिकार को मांगे जाने पर पेश ना कर दे।
व्यक्तिगत सुरक्षा के अधिकार का विस्तार- व्यक्तिगत सुरक्षा के अधिकार का विस्तार उस सीमा तक हानि पहुंचाने तक है जितना की परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक है।
उदाहरण- अ , ब को अकारण ही एक चांटा मारता है तो ब को अपने शरीर की रक्षा के लिए अ पर गोली चलाने का अधिकार नहीं है।
वह अपनी रक्षा के लिए कोई हल्की चोट कर सकता है जिससे वह अ से छुटकारा पा सके।
शरीर की व्यक्तिगत सुरक्षा के अधिकार का विस्तार आक्रमक की मृत्यु कार्य करने पर कब होता है –
भारतीय दंड संहिता की धारा 100 के अनुसार-
धारा 99 के निरबंधनों के अधीन रहते हुए, शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार , आक्रमक (हमलावर) कि स्वेच्छा मृत्यु या अन्य अपहानि करने तक है, यदि अपराध निम्न में से किसी भी एक प्रकार का है-
कब सामने वाले की मृत्यु कार्य कर सकते हैं-
पहला- मृत्यु ( जब युक्तियुक्त आशंका है कि हमले का परिणाम मृत्यु होगा) या
दूसरा- गंभीर चोट( जब युक्तियुक्त आशंका है कि हमले का परिणाम गंभीर चोट होगा)या
तीसरा- बलात्कार का आशय या चौथा – अप्राकृतिक यौन संबंध को तृप्त करने के इरादे से किया गया हो या
पांचवा- अपहरण या व्यपहरण के इरादे से किया गया हो या
छठां- सदोष परिरोध के इरादे से हो ,व पर्याप्त समय नहीं है कि लोक प्राधिकारीयों की सहायता ली जा सके।
सातवां- अमल (तेजाब )फेंकना या प्रयास करना
दंड विधि संशोधन अधिनियम,2013 (3-2-2013) द्वारा जोड़ा गया।
नोट- विधि एक व्यक्ति को जिसे युक्तियुक्त आशंका है कि उसका जीवन खतरे में है या उसके शरीर की घोर उपहति होने की संभावना है, यह अधिकार देती है कि वह अपने हत्यारे को जब तक उस पर हमला किया जा रहा हो या होने वाला हो , मृत्यु कार्य कर सकता है।
महत्वपूर्ण वाद- जयदेव बनाम पंजाब राज्य (1963), I CRL.J 495
इस मामले में कहा गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा में कारित अपहानि की मात्रा निश्चित नहीं की जा सकती, इसे परिभाषित करना संभव नहीं।
अजमत खान बनाम राज्य, A.I.R 1952 SC 165
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट नेअभीनिर्धारित किया की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में किया गया बल इतनी मात्रा में आवश्यक था कि नहीं, किसी भी मामले के तथ्यों को सोने की तराजू में तोलना युक्तियुक्त नहीं।
घिरिया भाव जी (1963) I C.R.L.J 431
अभियुक्त के मस्तिष्क में मात्र यह आशंका कि उसकी मृत्यु जादू- टोने द्वारा की जाएगी अनुचित है।
ऐसी आशंका के विरुद्ध वैयक्तिक प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त नहीं होता, जब तक कि शत्रु से शारीरिक हमले की आशंका ना हो।
जयप्रकाश बनाम दिल्ली प्रशासन, (1991) 2 SCC 32
इस वाद में कहा गया कि बातचीत के शब्दों का आदान-प्रदान कितना ही गरमा -गरम क्यों ना हो उससे मृत्यु की आशंका कभी नहीं होती वहां धारा100 का कोई भी खंड लागू नहीं होता।
धारा 102 के अनुसार- शरीर की आत्मरक्षा के अधिकार का प्रारंभ व बना रहना-
कब शुरू- जब शरीर संबंधी नुकसान की आशंका हो जाए।
कब तक बना रहेगा- जब तक संभावना पूरी तरह कल नहीं जाती।सबूत का भार- जब कोई अभियुक्त निजी सुरक्षा के अधिकार का दावा करता है तो अपने इस अधिकार को साबित करने के भार भी उसी पर होता है।