केवल कार्य किसी को अपराधी नहीं बनाता न्यायिक सेवा मुख्य परीक्षा टेस्ट सीरीज टेस्ट 2 एडवोकेट हिमानी शर्मा 

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न्यायिक सेवा मुख्य परीक्षा टेस्ट सीरीज टेस्ट 2 एडवोकेट हिमानी शर्मा ,जुडीशल अस्पिरेट्स के द्वारा लिखा हुआ का उत्तर पढ़ें और कमेंट करें

प्रश्न 1.  केवल कार्य किसी को अपराधी नहीं बनाता यदि उसका मन मनो भावना भी अपराधी ना हो के सिद्धांत की विवेचना कीजिए और इस सिद्धांत के अपवाद बताइए। [Critically examine the maxim “Actus non facit reum nisi mens sit rea “ and state its expectations.] ( 500 शब्द)

उत्तर:-किसी व्यक्ति के आपराधिक दायित्व के संबंध में अंग्रेजी कॉमन लॉ का मूलभूत सिद्धांत यह है कि –

” कोई भी कार्य अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा जब तक कि वह अपराध भाव मेंस रिया से ना किया गया हो ”

इस सिद्धांत का आधार सूत्र एक लैटिन सूत्र है:

“actus non facit reum nisi mens sit rea “

अर्थ : ” कोई कार्य तब तक अपराध नहीं होता जब तक वह आपराधिक आशय से ना किया गया हो। ”

दुराशय : (दोषपूर्ण या आपराधिक आशय )

“जब तक मन अपराधी नहीं होगा किया गया कार्य भी अपराध नहीं होगा”

किसी व्यक्ति को आपराधिक प्रकृति की कार्यवाही में तब तक दंडित नहीं किया जाएगा जब तक यह साबित ना कर दिया जाए कि उसका मन दोषी
था । अगर वह कार्य दूषित मन से नहीं किया गया तो माना जाएगा कि कोई अपराध किया ही नहीं गया। अतः कोई भी अपराध बिना मेंस रिया के नहीं किया जा सकता।

Mens Rea + Actus Reus = Crime
दोषपूर्ण आशय + दोषपूर्ण कार्य = अपराध

इंग्लिश कॉमन लॉ में यह कहा जाता है कि “कोई भी अपराध तब तक अपराध नहीं है जब तक कि वे अापराधिक मन या दूषित आशय के साथ ना किया गया हो”

  • आशय व किया गया कार्य दोनों एक दूसरे से जुड़े होने चाहिए । तभी अपराध का गठन होगा यदि व्यक्ति के मन में अपराध करने की कोई भावना ही नहीं है और उससे कोई कार्य हो गया है तो यह अपराध नहीं माना जाएगा।

” कोई कार्य अपराध नहीं होगा जब तक कि मन अपराधी ना हो, दूषित आशय के साथ ना किया गया हो। ” इसीलिए इसे आपराधिक मन : स्थिति या दूराशय का सिद्धांत कहा जाता है। इसी सूत्र को लॉर्ड कैनन ने अंग्रेजी विधि में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के रूप में मान्य किया। इसी सूत्र से एक दूसरी उक्ति निकलती है-
लैटिन सूत्र:
“actus me invito factus non est means actus “

अर्थ: ” मेरे द्वारा मेरी इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मेरा नहीं है”
किसी कार्य को दंडित होने के लिए इच्छित होना चाहिए। अत: अपराध को गठित होने के लिए आशय एवं कार्य दोनों का होना आवश्यक है

दुराशय (मन स्थिति ) की उत्पत्ति : अपराध दुराशय के बिना नहीं हो सकता
कोक ” Actus non facit reum nisi mens sit rea “ की उत्पत्ति
अंगास्टीन के उपदेश ” reum lingum non facit nisi mens rea” में मानते हैं

जस्टिस कोक के समय से ही इस सिद्धांत की शुरुआत हुई यह माना जाता है कि किए गए कार्य के लिए अपराधी मन का होना जरूरी है
दुराशय के सिद्धांत को सर्वप्रथम एक चोरी के मामले में कोक सी जे. द्वारा ब्रिटिश कॉमन लॉ में लागू किया गया महत्वपूर्ण वाद
आर बनाम प्रिंस 1875 LRCCR 154 न्यायधीश ब्लैक बोर्न ने अभीनिर्धारित किया कि यदि विधिक कारण के अभाव में कार्य किया जाता है तो कर्ता का आशय चाहे जो भी हो उसका कार्य अपराध होगा उसमें दुराशय को सिद्ध करना नहीं पड़ता है

कवीन बनाम टोल्सन 1889 23क्यू.बी.डी 168 इस वाद के सिद्धांत की विवेचना की गई
“केवल कार्य किसी को अपराधी नहीं बनाता यदि उसका मन भी अपराधी ना हो”

शिराज बनाम डी रूटजेन 1895 आई.क्यू. बी.918 न्यायधीश ने मत व्यक्त किया प्रत्येक संविधि में दुराशय अंतनिर्हित माना जाता है जब तक इसे प्रतिकूल सिद्ध ना कर दिया जाए

हॉब्स बनाम विंचेस्टर कारपोरेशन (1910)2क्यू. बी 471 न्यायधीश केनेडी महोदय ने विचारधारा प्रतिपादित की अधिनियम की हमें शाब्दिक रूप से व्याख्या करनी चाहिए जब तक कि कोई चीज यह स्पष्ट ना कर दे की मन स्थिति आवश्यक है

नोट :- भारत में इंग्लिश कॉमन लॉ में प्रचालित दुराशय का सिद्धांत लागू नहीं होता क्योंकि यहां अपराधिक विधि संहिताबद्ध है

1.साधारण अपवाद
2.स्वेच्छा या जानबूझकर,आशय से

दुराशय के सिद्धांत के अपवाद :- निम्नलिखित मामलों में दुराशय / अापराधिक आशय होना आवश्यक नहीं होता
1.लोक अपदूषण
2.दीवानी प्रक्रिया
3.कठोर दायित्व
4.जहां स्थानापन्न दायित्व का सिद्धांत लागू हो
5.मामूली जुर्माने से दण्डनीय ऐसे अपराध जिनमें दुराशय जानना असंभव है

निष्कर्ष :- न्यायालय किसी भी मामले में अपराधी को उसके आपराधिक विचार मेंस रिया को सिद्ध किए बिना दंड नहीं दे सकता जब तक अपराधी विचार को विधि द्वारा स्पष्ट रूप से अपराध की परिभाषा से अलग ही ना कर दिया गया हो